Page 48 - आवास ध्वनि
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इसी  क्रम  में  संस्लार  भी  लोक  में  िषपोल्लास  और  रीवत-
                                                               रवलाज से मिलार्ला जलातला िै| इसमें सगे- संबंधी और वमरिों

                                                               आहद को निमंरिण दकर गीत और खलाि-र्लाि द्लारला ढलाल से
                                                                                े
                                                               मिलार्ला जलातला िै |

                                                               इस कलाल में ऋतषुर्रख लोकगीतों र्र अशधक से अशधक

                                                               रचिलाए हुई िै| बीसवीं सदी क कववर्ों िे प्रकवत कला वण्यि
                                                                                                     ृ
                                                                                        े
                                                                    ँ
                                                               दो रूर्ों में नकर्ला िै| र्िली र्रंर्रलागत रूर् में और दूसरला
                                                                      े
                                                               प्रकवत क निरीक्षण कर आिंद कला वण्यि नकर्ला िै | कवव
                                                                 ृ
                                                                                             टि
                                                               मैशथली शरण गप्त ‘सलाकत’ में उवमलला क ववरि वण्यि में
                                                                                    े
                                                                                                  े
                                                                             षु
                                                               षि- ऋत कला वण्यि इस प्रकलार से नकर्ला िै-
                                                                       षु
                                                                              रे
                                                                                    रे
                                                                                                       रे
                                                                                         ं
                                                                     “ठल मुझ न अकलरी अध अवडन गभद्ध गह में
                                                                       रे
                                                               आज कहाँ है उसमें ष्हमांशु-मुख की अपूवद्ध उसजयालरी |”9
                                                                                                     टि
                                                               इसी  प्रकलार  शरद  ऋत  क  आगमि  र्र  उवमलला  को  र्वत
                                                                                  षु
                                                                                     े
         ग़्ज़ल आहद में अर्िी कववतलाओं को िर्ला स्वर हदर्ला| िॉ.   लक्षण क संदर एवं मिमोिक िरिों की र्लाद आ जलाती िै-
                                                                       े
                                                                                           े
                                                                          षु
         कष्ण ललाल िे इस ववषर् में अर्िे ववचलार इस प्रकलार प्रस्त
                                                         षु
          ृ
         नकए िैं नक “कलाव्य-रूर् की दृहटि से आधनिक गीवतकलाव्य                   “डनरख सखरी य खंजन आय,
                                            षु
                                                                                           रे
                                                                                                      रे
         कला प्रलारंभ संभवत िै गलाँव में प्रचललत लोक गीतों से िोतला िै           फररे उन मररे रंजन न नयन इधर मन भाय |”10
                                                                               रे
                                                                                                         रे
                                                                        रे
                                                                                       रे
                      े
         | संर्षुक्त प्रलांत क र्श्चिमी प्रलांतों में “ललाविी” कला बहुत िै और
         सलाधलारण िै ललाविी बलाजू क दो अखलाड़ों में बड़ला बढ़ी चलला   छलार्लावलादी  कववर्ों  िे  अर्िी  कववतला  कला  आधलार  ग्लाम-
                                े
                                                                            ृ
                                                                                       े
         करती िै | इसी प्रकलार कव्लाली, कजली, वबरिला इयिलाहद   जीवि और प्रकवत सौंदर््य क मलाध्यम से व्यक्त नकर्ला िै|
                                                                                          े
                                                      षु
                   े
                       े
         लोकगीत दश क ववहभन्न भलागों में प्रचललत िैं| आधनिक     इि  कववर्ों  िे  लोक  प्रवृशत्त  क  सलाथ  िी  लोकगीतों  की
                                                                                                              ें
                                                                                                            े
                     े
         गीती कलाव्य क रूर् र्र इि लोकगीतों कला प्रभलाव बहुत   संप्रेक्षणीर्तला और संवेदिीर्तला को भी अर्िी रचिला क कद्र
         बड़ला िै, ववशेषकर ललाविी कला| ललाविी मैं र्लाँच र्शक्तर्ों क   में रखला | इन्होंिे मलािवीर् भलाविला, सीधी-सलाधी अहभव्यशक्त,
                                                  ं
                                                          े
         र्चिलात एक चरण की र्षुिरलावृशत्त हुआ करती िै |”8 इसी   प्रतीक-र्ोजिला,  ललाक्षलाणीर्तला  आहद  ववशेषतलाओं  को
                                                                                            े
                                                                                                                े
                    षु
         संदभ्य में प्रस्त एक लोकगीत-                          अर्िे  लोकगीतों  एवं  रचिलाओं  क  द्लारला  जि-सलामलान्य  क
                                                               सम्ख रखला | छलार्लावलादी र्षुग क कववर्ों िे जि-जीवि की
                                                                  षु
                                                                                          े
                 “वह सभा-चतुर जो र्बगड़ काम सुधारै,            भलाविलाओं कला स्वरूर् लोकगीत द्लारला िी व्यक्त नकर्ला िै |
                                    रे
                                                                                       ृ
                  जब तलक बनै तब तलक न ष्हम्त हारै |            इसमें प्रलाथ्यिला-गीत िो र्ला प्रकवत-गीत, लोरी, चरखला-गीत,
                                                                                         े
                                                                              ं
                  जो राजा औ रैयत को दुःख होवै,                 संस्लार गीत र्ला अधववविलास क प्रवत भलाव िो सभी कववर्ों
                  यह यंरि र्वचारै ष्दनों को सुख होवै,          िे लोक में प्रचललत बलातों, भलावों और मलान्यतला की चचला्य
                                                               अर्िी रचिलाओं में की िै | कववर्रिी मिलादवी ििीं मलािला
                                                                                                     े
                  मंरिरी वह है सजसमें वह पौरु्ष होवै
                                                               िै नक-
                    ं
                  सब अग पलै जन मुखखया मुख ज्यों होवै
                                 रे
                  ससर्दांत में साथै, र्ववक मंरि र्वचारै,                      “ ष्प्रय सचतरंजन हरे सजडन,
                  जब तलक बनै,तब तलक न ष्हम्त हारै ||                            क्षण क्षण नवीं सुहाष्गनरी मैं ||”11
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