Page 26 - आवास ध्वनि
P. 26

टि
         स्वलांतत्रोत्तर कथला सलाहियिकलारों िे भी िलारी मषुशक्त कला समथ्यि   िै। कमलेविर क ‘तीसरला आदमी’ की शचरिला समर् तो आशथक
                                                                           े
                                                े
                         े
                                                                                                   े
         नकर्ला, सलाथ िी उसक द्न्द्ों को भी सजीवतला से उकरला िै, रलाजेन्द्   आभलाव से उत्पन्न द्न्द्ों को सिती िै और र्वत क शक कला शशकलार
         र्लादव क सलारला आकलाश की प्रभला जीवि द्न्द्ों से मक्त िोिे क   भी बिती िै, ब्स्वत िे ववषम िो जलािे र्र र्वत को मलारि सूचिला
                                                  षु
                                                          े
               े
                                                                े
                                      ं
                                          े
         ललए संघष्यरत रिती िै, शशवप्रसलाद शसि क ‘औरत’ उर्न्यलास की   दकर एक ववद्यलालर् में िौकरी कर लेती िै और जब र्वत िरेश
         िलाशर्कला कल्पिला लोक में ि जीकर, स्वलाहभमलािी जीवि जीिे क   उसे छोड़कर चलला जलातला िै तो समन् क सलाथ निस्कोच रििे
                                                                                                        ं
                                                          े
                                                                                              े
                                                                                         षु
         ललए अिेक प्रकलार क द्न्द्ों एवं तिलावोः कला सलामिला करती िै।   लगती िै ‘समद्र में खोर्ला हुआ आदमी’ की तलारला भी आशथक
                         े
                                                                                                              टि
                                                                          षु
                                                                                                े
         उषला हप्रर्ंवदला क शेषर्लारिला में अिषुकला को जब उसकला र्वत प्रणव   र्रेशलानिर्ों को दूर करिे क ललए िरबंस क र्िलाँ िौकरी करती
                     े
                                                                                   े
         यिलाग दतला िै, थोड़ समर् तक तो द्न्द्ग्स् रिती िै, बलाद में   िै।  ‘कलाली  आधी’  की  मलालती  तो  बहुत  मित्वलाकलाक्षी  िै  जो
                                                                                                        ं
                                                                          ं
                        े
               े
                                                                        े
         हदव्यला द्लारला समझलार्े जलािे र्र तिलावों एवं द्न्द्ों कला सलामिला कर   सिलतला क िशे में चूर िो र्वत और र्षुरिी को छोड़ दती िै,
                                                                                                           े
                             षु
                                                                                       षु
          ॅ
                                                                        े
         िलाक्टर बि कर िी द्न्द्मक्त िो स्वतंरि जीवि-र्लार्ि करती िै।   किलािी ‘सिद वततललर्लां’ में समि कला र्वत ििीं चलाितला की वि
                      े
                                                                                                              षु
         कष्णला सोबती क ‘वमरिो मरजलािी’ की वमरिो हिन्ी कथला सलाहियि   गभ्य धलारण करे, बलाद में र्वत की मृयिषु िो जलाती िै लेनकि समि
          ृ
          े
         क इवतिलास की र्िली स्ती िै जो शलारीररक आवश्यकतला की   कला द्न्द् अर्िी जगि ववद्यमलाि िै नकन् वि लम्बे समर् तक
                                                                                               षु
         र्वत क ववषर् में खलकर किती िै, इसी तरि उिक उर्न्यलास   द्न्द्ग्स् ििीं रिती, वि कछ सोचकर निण्यर् करती िै। प्रेमी
                                                  े
                         षु
          ू
            टि
              े
                                                                                    षु
                                                          े
                                                   े
                                                                                           े
         ‘सूरजमखी अधेरे क’ की बललात्कृत स्ती बललात्कलार क बलाद क   वेदप्रकलाश को जसवन् की आत्मला क रुर् में प्रचलाररत करती िै।
              षु
                   ं
                        े
                               े
                                      े
         द्न्द् को सिती िै नकन् थोड़ समर् क उसे हदर्लाकर क मलाध्यम   बलाद में गभ्यवती िो जलािे क बलारे में जलाि लेिे र्र एकलाएक वि
                                                                                    े
                           षु
                                                   े
         से र्तला चल जलातला िै नक ‘‘सभी कछ अर्िी जगि र्र िै। कछ भी   गम िो जलाती िै। र्िलाँ कमलेविर ववधवला स्ती को द्न्द् मक्त करिे
                                                                                                          षु
                                                      षु
                                  षु
                                                                षु
                                       ृ
         खंनित ििीं हुआ िै। सब समूचला िै’’ कष्णलाजी इस उर्न्यलास में   कला िर संभव प्रर्लास करते िै, उिकी किलािी ‘धूल उड़ जलाती िैं,।
         स्टि कर दती िैं नक र्ोनि खंिि व्यशक्तत्व खंिि ििीं िै, शचरिला   की िसीबि र्षुरुष वग्य द्लारला चोरी कला इल्लाम लगलार्े जलािे र्र
                  े
                                                                                            षु
                                           ं
         जी क उर्न्यलास ‘एक जमीि अर्िी’ की अनकतला सलालों-सलाल   द्न्द्ग्स् ि िोकर उसकला िटकर मकलाबलला करती िै। हिन्ी
             े
                                                        ू
                            े
             ू
         द्न्द्र्ण्य शजन्गी जीिे क बलाद र्वत से अलग रि स्वतंरितलार्ण्य   कथला सलाहियिकलारों िे अर्िे कथला सलाहियि में अशधकलांशतः िलारी
                                                                                                      टि
         जीवि जीती िै, उन्हीं की किलािी ‘भूख’ में उस बेरोजगलार स्ती क   को द्न्द्ों से मक्त कर स्वतंरि जीवि जीते हुए वलणत नकर्ला िै।
                                                          े
                                                                          षु
         द्न्द् को उकरला गर्ला िै जो शजजीववषला की खलावतर अर्िे छोटे   अमलािवीर् आचलारों क प्रवत आक्रोश:- अब स्ती इतिी सशक्त िो
                  े
                                                                               े
                             े
         बच् को हभखलाररि को दिे को वववश िै। मृदषुलला शसन्हला िे ‘ज्यों   चकी िै नक वि अर्िे प्रवत िोिे वलाले अमलािवीर् आचलारों क प्रवत
             े
                                                                षु
                                                                                                            े
                                       े
         मेेिदी को रंग’ में र्लांव कटी शलाललिी क द्न्द्ों को उभलारला िै और   ववद्रोि दज्य करलािे की सलामथ्रर् रखती िै। समलाज में अब बहुत से
                                          षु
         बलाद में उसे आत्मनिभ्यर हदखलाकर उसे द्न्द्मक्त कर स्वतंरि जीवि   र्षुरुष भी स्ती क प्रवत ऐसे व्यविलार कला ववरोध करते िैं, रलाजेन्द्
                                                                           े
         जीते हदखलार्ला िै।                                    र्लादव क ‘सलारला आकलाश’ क र्षुरुष र्लारिों की र्ि ववशेषतला िै नक
                                                                                    े
                                                                     े
         हिन्ी कथला सलाहियि में कथला सलाहियिकलारों िे िलारी क आशथक   वे िलारी क प्रवत सकलारलात्मक सोच रखते िैं, जब भलाई द्लारला भलावी
                                                   े
                                                                      े
                                                        टि
                                                                                                         षु
                                                                                                           ृ
         रुर्  से  स्वलावलम्बी  रुर्  कला  शचरिण  कर  उसे  सशक्त  रुर्  में   र्र िलाथ उठलार्ला जलातला िै तब समर अर्िे भलाई को इस ककव्य र्र
                                       े
                                  े
         हदखलार्ला िै। मेिरुहन्नसला र्रवेश क ‘अकलला र्ललाश’ की तिमीिला   शधक्लारतला िै। र्हद र्षुरुष अर्िे र्षुरुषत्व र्र गव्य करे तो गौरव
                                        षु
         कलामकलाजी िलारी िै, स्वलावलम्बी िै नकन् िर्षुंसक र्वत की र्त्नी   की बलात मलािी जलाती िै लेनकि स्ती अर्िे स़्रिीत्व की बलात करे तो
                                                                                              ृ
             े
                         े
                            े
                                                                                                          े
                                                     षु
                                                          े
         िोेिे क कलारण स्ती-दि क द्न्द् को सििे को वववश िै। तषलार क   समलाज इसे अिवतक मलाितला िै लेनकि कष्णला सोबती क ‘वमरिो
                                                                          ै
                       े
                                                                                            े
                                       े
         जीवि में आ जलािे क र्चिलात वि अर्िी दि की मंलाग को उससे र्ूरला   मरजलािी’ की वमरिो इस अमलािवीर्तला क प्रवत ववद्रोि प्रगट करती
         कर लेती िै। इसप्रकलार कला तषलार क सलाथ कला सम्बंन् तिमीिला   िै, उसे मलाँ बििे की िौंस िै लेनकि उसकला र्वत उसे मलाँ बिलािे मंे
                                षु
                                     े
                                                                                   षु
                                  े
         को एक बलार को द्न्द्ग्स् कर दतला िै, हिर र्ि सोचकर, ‘‘र्ि   अक्षम िै  शजस र्र वि खले आम प्रिलार करती िै। कमलेविर िे
                                                 षु
         र्लार् ििीं, आदमी की जरुरत िै’’ अर्रलाध बोध से मक्त िो जलाती   अर्िे र्िले उर्न्यलास ‘एक सड़क सत्तलावि गललर्लां’ में एक ऐसे
       26
   21   22   23   24   25   26   27   28   29   30   31